Posts

Showing posts from April, 2025

त्योहार 🌻✨

Image
जब मैं माध्यमिक स्तर में पढ़ता था, तो कोचिंग के लिए अक्सर अपने अंकल के पास जाया करता था। वे मेरे स्कूल में भी शिक्षक थे। एक दिन पढ़ाई के दौरान मैंने उनसे पूछा कि हमारे देश, खासकर हिन्दू धर्म में, इतने त्योहार क्यों होते हैं। उन्होंने कहा कि इंसान को खुश रहने के लिए पर्व-त्योहार बेहद जरूरी होते हैं। हम चाहे कितना भी मनचाहा सामान खरीद लें या कोई बड़ी उपलब्धि हासिल कर लें, उसकी खुशी कुछ ही दिनों की होती है। लेकिन त्योहार ऐसे मौके होते हैं जो हमें बिना किसी कारण के भी हँसने और अपनों के साथ समय बिताने का अवसर देते हैं। उनकी बात उस समय मेरे दिल को छू गई थी, क्योंकि मैंने हाल ही में एक नई साइकिल खरीदी थी, जिसके लिए मैं बहुत दिनों से उत्साहित था। लेकिन कुछ ही दिनों में उसकी खुशी कम हो गई और सब कुछ फिर से सामान्य लगने लगा। तभी मुझे महसूस हुआ कि त्योहार वास्तव में ज़िंदगी को थोड़ा और खूबसूरत बनाने के लिए बनाए गए हैं। पर आज के समय में शायद हम इस भावना को भूल चुके हैं। त्योहार अब खुशी का नहीं, जिम्मेदारियों और तैयारियों का बोझ बनते जा रहे हैं। हम उन्हें मनाने के बजाय निभाने लगे हैं। पह...

चुनाव पर कुछ लाइन..✍️

Image
                       " चुनाव पर कुछ लाइन :"...✍️ कौन जात हो भाई?  दलित है' साब ! नहीं मतलब किसमें आते हो ?  आपकी गाली में आते हैं  गंदी नाली में आते हैं  और अलग की हुई  थाली में आते हैं साब!  नहीं मुझे लगा हिंदू में आते हो।  आता हूँ न साब !  पर आपके चुनाव में क्या खाते हो भाई ?   जो एक दलित खाता है साब ! नहीं मतलब क्या-क्या खाते हो?  आपसे मार खाता हूँ  कर्ज का भार खाता है और तंगी में नून तो कभी अचार खाता हूँ साब ! नही मुझे लगा कि मूर्गा खाते हो !  खाता हूँ न साब ! पर आपके चुनाव में। क्या पिते होभाई ? जो एक दलित पीता है साब !  नहीं मतलब क्या-क्या पीने हो ? छूआ हुल का गम  टूटे अरमानों का दम और  नंगी आंखों से देखा गया सारा भरम साब ! नहीं मुझे लगा शराब पीते हो।  पीता हूँ न साब ! पर आपने चुनाव में। क्या मिला है भाई ?  जो एक दलितों को मिलता है साब ! नहीं मतलब क्या -क्या मिला है ?  जिल्लत भरी जिंदगी  आपकी धोई हुई गंदगी और...

मध्यम वर्गीय परिवार के दो बेटे :

मध्यम वर्गीय परिवार के दो बेटे : मध्यम वर्गीय परिवारों में दो तरह के बेटे होते हैं। एक वे, जो बचपन से अपनी हर ख्वाहिश अपने माता-पिता के पैसों से पूरी करते हैं। उनकी इच्छाएँ कभी अधूरी नहीं रहतीं, क्योंकि माँ-बाप उनकी हर फरमाइश पूरी करने की कोशिश करते हैं। लेकिन जब वे बड़े होते हैं और खुद कमाने लगते हैं, तो उनकी कमाई सिर्फ जरूरतों तक सीमित रह जाती है। फिर जिंदगी ऐसे मोड़ पर आ जाती है कि उनके अपने सपने कहीं खो जाते हैं, और वे बस जिम्मेदारियों को निभाने में उलझकर रह जाते हैं। दूसरी तरफ वे बेटे होते हैं, जो बचपन से ही अपनी इच्छाओं को सीमित करना सीख जाते हैं। जिनके माता-पिता हर फरमाइश तो पूरी नहीं कर पाते, लेकिन उन्हें जरूरतों की अहमियत समझा देते हैं। ये बच्चे कम में भी खुश रहना सीख जाते हैं, अपने सपनों को वक्त के साथ सहेजकर रखते हैं। और फिर जब ये बड़े होते हैं, खुद कमाने लगते हैं, तो अपनी हर ख्वाहिश को पूरा करने के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं। उनके लिए जिंदगी सिर्फ जिम्मेदारियों तक सीमित नहीं होती, बल्कि वे अपने हर उस सपने को भी पूरा करते हैं, जिसे कभी बचपन में दबा दिया था। फर्क बस इतना होता...